एक महान मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी मौलाना हुसैन अहमद मदनी जिन्हे भुला दिया गया।

Mulana Husain Ahmad Madni

मौलाना सय्यद हुसैन अहमद मदनीे (Hussain Ahmed Madani) ख्यातिप्राप्त इस्लामी विद्वान और स्वतंत्रता सेनानी थे। आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, खिलाफत आंदोलन और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रभावशाली नेता थे। आप एक हाजिर जवाब, अच्छे वक्ता (भाषण देने वाला) और एक अच्छे तर्क शास्त्री (तर्क देनेवाला) थे। आप के पिता सय्यद हबीबुल्लाह थे, जो पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) के वंशज थे।

प्रारंभिक जीवन -

मौलाना सय्यद हुसैन अहमद मदनी का जन्म 6 अक्टूबर 1879 में उन्नाव जिला (उत्तर प्रदेश) के बांगरमऊ कस्बे में हुवा था। आप के पिता सय्यद हबीबुल्लाह प्रधानाध्यापक थे। आप ने अपनी मां से पांचवीं पारा तक और फिर अपने पिता से पांचवीं से आखिरी पारा तक कुरान का नाजरा (देख कर कुरान पढ़ना ) किया, और 13 साल की उम्र तक अपनी शिक्षा अपने पिता के स्कूल में पूरा किया । 

तेरह साल की उम्र हो जाने पर  पिता ने दारुल उलूम देवबंद भेज दिया, जहां आप ने मौलाना महमूद हसन देवबंदी और मौलाना जुल्फिकार अली (दारुल उलूम देवबंद के संस्थापकों में से एक ) जैसे शिक्षको  के अधीन अध्ययन किया। बाद में आप रशीद अहमद गंगोही के शिष्य बने, जिन्होंने बाद में आप को सूफी मार्ग में दूसरों को मुरीद करने के लिए अधिकृत किया।

दारुल उलूम देवबंद से स्नातक होने के बाद, आप मदीना चले गए। जहां आप ने अरबी व्याकरण,  अल-फ़िकह, उसूल अल-हदीस, और कुरानिक  पढ़ाना शुरू किया। धीरे धीरे आपका शिक्षण बहुत विस्तृत हो गया। आपके आसपास छात्रों की भीड़ जमा हो गई। इस समय आपकी उम्र मात्र 24 साल थी, आप को शिक्षा के क्षेत्र में इतनी प्रसिद्धि मिली  कि मध्य पूर्व, अफ्रीका, चीन, अल्जीरिया, हिन्दुस्तान तक के छात्र ज्ञान प्राप्त करने खींचे चले आने लगे।

Maulana Hussain Ahmed Madani, a Muslim freedom fighter who was forgotten.

स्वतंत्रता और एकता के लिए प्रयास-

सऊदी में शिक्षण के दौरान आप के शिक्षक मेहमूद हसन की 'रेशम पत्र षड्यंत्र' में  भूमिका के लिए अंग्रेजों द्वारा सजा सुना दिया गया जिसके बाद उन्हें माल्टा द्वीप के एक जेल में भेज दिया गया, अपने  बूढ़े उस्ताद की सेवा के लिए मदनी और तीन छात्रों ने साथ जाने का फैसला किया ताकि वह उनकी देखभाल कर सकें। महमूद हसन ने कहा कि अंग्रेजी सरकार ने मुझे दोषी पाया है, तुम लोग निर्दोष हो, खुद को रिहा करने की कोशिश करो, तो आप चारों ने जवाब दिया कि वे मर जाएंगे लेकिन वे आपकी सेवा से अलग नहीं होंगे।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद साढ़े तीन साल की कैद के बाद, शेख अल-हिंद और हुसैन अहमद मदनी सहित उनके सभी साथियों को आखिरकार रिहा कर दिया गया। 

अपनी रिहाई के बाद, वे भारत लौट आए और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। आप ने 1920 में कांग्रेस-खिलाफत समझौते ( Congress-Khilafat Pact ) को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ भारतीय उलेमा के सहयोग के लिए जमीन तैयार की।

1930 से 1950 के धार्मिक रूप से कठिन वर्षों के दौरान जब धार्मिक विचार हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे दो चरम पंथों में बंटे थे तो मौलाना मदनी ने बार बार यह लिखा, तर्क किया और इस बात के लिए अभियान चलाया कि अंग्रेजों के खिलाफ सभी धर्मों के लोगों को मिलकर संयुक्त संघर्ष करना चाहिए और इसीके साथ उन्होंने कुरआन और पैगम्बर मुहम्मद साहब की शिक्षाओं (हदीस) के आधार पर समुदायों के बीच एकता और सहयोग को भी उचित ठहराया था।

मौलाना मदनी ने पाकिस्तान के निर्माण और दो राष्ट्र सिद्धांत के तर्क का विरोध किया, इसके लिए आप ने अपनी राजनीतिक विचार “मुत्तहिदह कौमियत" का लोगो में खूब प्रचार प्रसार किया।

मुत्तहिदह कौमियात वह अवधारणा है जो यह तर्क देती है कि 'भारतीय राष्ट्र' विविध संस्कृतियों, जातियों, समुदायों और धर्म के लोगों से बना है, इसलिए "भारत में राष्ट्रवाद को धर्म द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता है।"  भारतीय नागरिक अपनी विशिष्ट धार्मिक परंपराओं एवं पहचान को बनाए रखते हुवे एक स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष भारत के पूर्ण नागरिक होंगे। मुत्तहिदह कौमियात (समग्र राष्ट्रवाद) का कहना है कि अंग्रेजों के भारतीय उपमहाद्वीप में आने से पहले विभिन्न धार्मिक विश्वास के लोगों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी, अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' नीति के तहत् लोगों के बीच दुश्मनी पैदा किया। लोगों को ये समझा कर  इन कृत्रिम विभाजनों को भारतीय समाज से दूर किया जा सकता है।

अपने ऐसे विचारों से मौलाना हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही चरमपंथियों से बराबर रूप से लड़ रहे थे। इसी प्रक्रिया में, मौलाना महमूद मदनी की बहस भी कई बार शायर अल्लामा मौलाना इकबाल के साथ हुई। कई पत्रों द्वारा विचारों के आदान प्रदान के बाद मदनी अपने प्रयास में सफल हुए। इसका पता इकबाल के कई पत्रों से चलता है। 

अपने सभी प्रयासों को बावजूद देश का विभाजन होने से मदनी को बहुत दुख हुआ, मदनी और कई अन्य मुस्लिम धार्मिक नेताओं  ने लाखों मुस्लिमों को भारत में रुकने के लिए मना लिया। 

आजादी के बाद, जवाहरलाल नेहरू की अगुआई वाली नई सरकार ने मौलाना मदनी को कई तरह का राजनीतिक पद देने का प्रयास किया, मगर मदनी ने बहुत ही विनम्रता से इंकार कर दिया और देवबंद मदरसे में पढ़ाना शुरू कर दिया। मौलाना मदनी 1954 में पद्म भूषण सम्मान प्राप्त करने वाले  पहले प्राप्तकर्ताओं में से थे। 

5 दिसम्बर सन् 1957 में मदनी के मृत्यु के बाद, पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेट कर देश का सर्वोच्च सम्मान दिया गया और अंतिम यात्रा में प्रधानमंत्री नेहरू समेत उनके मंत्रिमंडल के कई मंत्री भी मौजूद थे। मौलाना मदनी को सर्वोच्च सम्मान के साथ सुपुर्दे ख़ाक किया गया। 29 अगस्त 2012 को, भारतीय डाक विभाग ने मौलाना मदनी के सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया ।

.
◈ पोस्ट पसंद आया हो तो लाईक करें :
आफताब अहमद

अहमद इस साइट पर एक लेखक और मॉडरेटर हैं। इन्हें साइंस और टेक्नोलॉजी पर लिखना पसंद है, लेकिन ये लगभग सभी विषयों पर लिखते रहते हैं। अगर आप भी इस साइट पर कुछ लिखना चाहते हैं तो साइट के नीचे संपर्क करें पर क्लिक करें। email facebook twitter youtube