टीपू सुल्तान की मिसाइल प्रणाली जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।

आज टीपू सुल्तान की शहादत का दिन है। 4 मई 1799 ई०में देश के इस सपूत ने अंग्रेज़ों की ग़ुलामी या शहादत में से शहादत को गले लगाया और अमर हो गए।

नासा में टीपू सुल्तान की पेंटिंग -

शायद आप लोग नहीं जानते अमेरिकी स्पेस रिसर्च एजेंसी नासा के रिसेप्शन लॉबी में एक पेंटिंग है जिसमें एक लड़ाई का दृश्य दिखाया गया है और साथ में ये बताने की कोशीश की गई है कि कैसे रॉकेट के इस्तेमाल सें एक योद्धा ने विशाल ब्रिटिश सेना को हराया था और यह योद्धा कोई और नहीं बल्कि टीपू सुल्तान थे जी हाँ इस बात से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि रॉकेट के इतिहास में टीपू सुल्तान का क्या महत्व है।

जब टीपू सुल्तान ने किया राकेटों का प्रयोग -

लगभग तीन सौ साल पहले दक्षिण भारत के एक योद्धा ने ऐसे हथियार का इजाद किया था जिसने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे। ये जांबाज योद्धा टीपू सुल्तान थे। टीपू सुल्तान 18 वीं सदी के उन जांबाज योद्धाओं में से थे जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान के साथ दोस्ती करने की बहुत कोशीश की लेकिन टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के साथ कभी हाथ नहीं मिलाया, इसलिए अंग्रेज टीपू सुलतान के जानी दुश्मन बन गए थे। अपने इसी जानी दुश्मन के ख़िलाफ़ टीपू सुल्तान और उनके पिता अली हैदर ने चार लड़ाई लड़ी थी जिन्हें अंगलो मैसूर युद्ध कहा जाता है। जब इस लड़ाई में अंग्रेजों के गोला बारूद टीपू सुल्तान की तलवार पर हावी होने लगे तब टीपू सुल्तान ने अपनी फौज को एक ऐसा हथियार चलने का आदेश दिया जिसका सामना ब्रिटेन सेना ने कभी नहीं किया था। वे हथियार जिसे इतिहास में मैसूरियन रॉकेट के नाम से जाना जाता है।

टीपू सुल्तान और अली हैदर कैसे बनाया राकेट -

टीपू सुल्तान के पिता अली हैदर एक सिपाही के बेटे थे। अली हैदर के पिता आर्मी एक सिग्नलिंग डिविजन के प्रमुख थे। उन दिनों छोटे रॉकेट का इस्तेमाल युद्ध के समय सिग्नल देने के लिए किया जाता था। वो कहते हैं ना कि हर महान खोज के पीछे एक सोच होती है। छोटे रॉकेट का इस्तेमाल सिग्नल देने तक ही सीमित रह जाता अगर  हैदर अली ने ये ना सोचा होता कि इन सिग्नलिंग डिवाइस को जंग में हथियार के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। फिर उन्होंने यह सोचना शुरू कर दिया कि कैसे इन सिग्नलिंग रॉकेट्स को मोडिफाइ कर जंग के मैदान में इनका इस्तेमाल किया जाए। तब उन्होंने ऐसा सोचा कि हम रॉकेट के बैंबू को स्टील से रिप्लेस कर उसमें बारूद भर इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं, और इसके बाद अली हैदर के नेतृत्व में ऐसे स्टील के बने रॉकेट का प्रोडक्शन शुरू हुआ। अपने पिता के बनाए हुए रॉकेट ने टीपू को इतना इंप्रेस किया कि इस मैसूर के शेर ने इन रॉकेट का रूप बदलकर इन्हें खतरनाक हथियार बना दिया। इसके लिए टीपू सुल्तान ने रॉकेट के सामने 4 फुट की तलवार भी जोड़ दिया। इससे इन रॉकेटों की मारक क्षमता में जबरदस्त इजाफा हो गया।

कैसे काम करता था ये रॉकेट -

इस रॉकेट को उड़ाने का सिद्धांत बड़ा ही आसान था जब उसे आग लगाई जाती तो इसमें भरा बारूद जलने की वजह से इस रॉकेट को अपोज़िट दिशा में  गति मीलती थी जिसकी वजह से ये लगभग एक किलोमीटर की दूरी तय करता थ। इस रॉकेट में जो तलवार लगाई जाती थी इसका वजन रॉकेट से ज्यादा होता था, इसलिए रॉकेट में मौजूद इंधन खत्म होने पर ये तलवार हवा में चक्कर खाते हुए ब्रिटिश सेना पर गिरती थी और बहुत घातक नुकसान पहुंचाती थी।

टीपू सुल्तान और हैदर अली ने जीता 3 युद्ध लेकिन धोखे के शिकार हुए -

1767 से 1799 तक मैसूर और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई लड़ाइयों में टीपू सुल्तान की इजाद किए गए विनाशक रॉकेट ने कहर मचाया था। इन लड़ाइयों में ब्रिटिश को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। ब्रिटिश सैनिकों में टीपू सुल्तान का इस कदर खोफ़ था कि उनका नाम सुनते ही उनके रॉकेटों से बचने के लिए जगह ढूंढने लगते थे। लेकिन फिर 1799 में अंग्लो मैसूर की चौथी लड़ाई में ब्रिटिश फौज के पचास हज़ार सैनिकों ने निज़ाम, मराठे, रजवाड़ों और टीपू के गद्दार सेेनापति के साथ मिलकर मैसूर की राजधानी पर हमला बोल दिया। टीपू सुल्तान को इस प्रकार के हमले की उम्मीद न थी। ब्रिटीशों की सेना टीपू सुल्तान की सेना पर भारी पड़ गयी और आखिरकार टीपू सुल्तान को हार का सामना करना पड़ा और वो युद्ध के मैदान में लड़ते हुए शहीद हो गए। टीपू के पास मौके थे कि वो अंग्रेजों से हाथ मिला लें, उनके साथ हो जाएं लेकिन टीपू ने कहा गीदड की 100 साल की जिंदगी से शेर की एक दिन कि जिंदगी बेहतर है।

जब टीपू की रॉकेट पहुंची ब्रिटेन -

टीपू सुल्तान तो नहीं रहे पर उनके बनाएँ रॉकेट ब्रिटिश के हाथ में पहुँच गए, इन राकेटों की टेक्नोलॉजी समझने के लिए अंग्रेज इन रॉकेटों को अपने साथ ले गए। टीपू सुल्तान के ये रॉकेट अब ब्रिटिश रॉकेट बन चुके थे। ब्रिटिशर्स ने नेपोलियन बोनापार्ट के ख़िलाफ़ जो जंग लड़ी उन्होंने इस रॉकेट का इस्तेमाल किया और नेपोलियन को हरा दिया।

आज दुनिया में बड़ी बड़ी रॉकेटों को बनाने की होड़ मची है, ये रॉकेट अब अंतरिक्ष में जाने का साधन भी है। लेकिन इन सारे रॉकेट की जड़ मैसूरीयन रॉकेट है। हैदर अली और टीपू सुल्तान के बनाए रकेटों ने जंग के माहौल को हमेशा के लिए बदल दिया। इन राकेटों के लाभ आज पूरी दुनियां उठा रही है। रॉकेट टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सिर्फ युद्ध के लिए ही नहीं होती, इसके कई अच्छे फायदे भी होते हैं। आज रॉकेट टेक्नोलॉजी से ही स्पेस टेक्नोलॉजी में काफी तरक्की हुई है। रॉकेट की वजह से ही भारी वस्तुएं और कई उपग्रह आसमान की ऊंचाइयों पर लॉन्च किए जा सकते हैं।

हैदर अली और टीपू सुल्तान के बनाए रॉकेटों के कारण आज आधुनिक युग में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 

(अगर एक मुसलमान होने के नाते आपको भी हैदर अली टीपू सुल्तान पर गर्व है तो इस पोस्ट को शेयर जरूर करें।)
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आफताब अहमद

अहमद इस साइट पर एक लेखक और मॉडरेटर हैं। इन्हें साइंस और टेक्नोलॉजी पर लिखना पसंद है, लेकिन ये लगभग सभी विषयों पर लिखते रहते हैं। अगर आप भी इस साइट पर कुछ लिखना चाहते हैं तो साइट के नीचे संपर्क करें पर क्लिक करें। email facebook twitter youtube